चित्तौड़गढ़ - भगवान को प्रसन्न करना संभव है परंतु संसार को प्रसन्न करना संभव नहीं - संत दिग्विजय राम
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सीधा सवाल। चित्तौड़गढ़। भगवान भक्ति से प्रसन्न होते हैं यह कटु सत्य है उदाहरण के लिए दुर्वासा ऋषि का तप अमरीश की भक्ति के सामने फीका पड़ गया था। भगवान राम के वनवास के समय वन में कई ऋषि तपस्वी श्री राम का इंतजार अपने आश्रम पर कर रहे थे लेकिन भगवान सीधे शबरी के आश्रम पहुंचे अर्थात भगवान को भक्ति प्रिये है। इस संसार में ईश्वर को प्रसन्न करना संभव है परंतु संसार को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है अतः व्यक्ति अपने जीवन को सरल व सहज रखें दुनिया को आप किसी भी हालत में प्रसन्न नहीं कर सकते हैं जिसकी जैसी दृष्टि होगी वैसी उसके लिए सृष्टि होगी आप कुछ भी कार्य करें लेकिन सामने वाले की जैसी सोच होगी वह वैसा ही सोचेगा। रामस्नेही संप्रदाय के अाधाचार्य स्वामी रामचरण जी महाराज ने कहा था कि नीम के पेड़ में कितना ही मीठा डालो लेकिन नीम कभी मीठा नहीं हो सकता है यानी संसार में व्यक्ति अपनी प्रकृति अनुसार ही जीता है यहां तक की इस संसार में परमात्मा भी सबको प्रिय नहीं हैं l दिग्विजय राम जी सत्संग के दौरान भक्ति के 9 प्रकार बताएं जिसे नवेदा भक्ति कहा गया है भक्ति के 64 अंग है ,64 अंग का अर्थ होता है कि आप अमुख -अमुख कार्य करते हैं तो भी वह भक्ति कहलाती है l भक्त शब्द भज + सेवा से ही भक्त शब्द बना है 

 निम्नांकित कार्यअगर व्यक्ति करता है तो वह भक्ति कहलाती है जैसे गुरु चरणों का आश्रय लेना - भक्ति का मंगला चरण है, गुरु दीक्षा, गुरु की सेवा, साधु मार्ग का अनुसरण, धर्म के प्रति जिज्ञासा, त्याग, श्री द्वारका क्षेत्र व गंगा क्षेत्र में निवास व स्नान करना , धर्म के लिए धन संग्रह करना, आंवला की पूजा , भक्ति से विमुक्त व्यक्ति का त्याग करना, सत्संग करना, जीवन में बड़े-बड़े कार्यो का प्रारंभ न करना यानी ऐसे कार्य न करें जिसको जीवन में व्यक्ति पूरा नहीं कर सके और उसमें समय व्यर्थ जाए , धार्मिक ग्रंथो का अभ्यास करना , व्यक्ति को अधिक कलाओं का अभ्यास भी नहीं करना चाहिए क्योंकि इसमें उसका समय बर्बाद होता है , व्याख्या एवं विवाद से बचना चाहिए , व्यवहार में दीनता कृपणता को नहीं आने देना चाहिए, शोक विभूषित ना होना -- व्यक्ति को जो बीत गया उसका शोक ना करें और न ही भविष्य की चिंता करें जो दिन आज बित रहा है उसका धन्यवाद प्रभु को करना चाहिए इसका अर्थ है व्यक्ति को वर्तमान में जीना चाहिए, अन्य देवी देवताओं का अपमान न करना इसका अर्थ है आपकी साधना श्रेष्ठ है लेकिन केवल यह सोचना की मेरी ही साधना श्रेष्ठ है यह अनुचित है अतः हर संप्रदाय, धर्म का आदर करना चाहिए, कभी किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिए सभी धर्म का सम्मान करना चाहिए, जीवो को कष्ट नहीं देना, अपराध से बचाना ,भक्त और भगवान की निंदा न करना और न ही निंदा सहना, निंदा न सहना भी भक्ति कहलाती है, भाव विभोर होकर भगवान के सामने नृत्य करना भी भक्ति है ---व्यक्ति को भगवान के सामने भाव विभोर होकर नृत्य करना चाहिए, दंडवत प्रणाम करना, भक्त व भगवान का सत्कार करना, भक्ति के निमित्त भक्तों के साथ चलना, परिक्रमा करना, सेवा करना, सत्य कर्म में सहभागी होना , संकीर्तन करना, मंत्र जाप करना, सेवा कार्य की विज्ञप्ति करना, नेवद चढ़ाना, चरण सेवा, माला अर्पण, आरती, कथा श्रवण, सुमरीन, ध्यान, दास्तत्व भाव , निज प्रिय वस्तु समर्पण, भगवान को सेवा भाव से शरणागत होना, तुलसी लेना, धर्म ग्रंथो का सम्मान करना, तीर्थाटन करना, कार्तिक मास में धर्म आचरण करना, जन्मदिवस पर दान पुण्य करना, प्रभु सेवा करना, भगवत रसीको के साथ कथा श्रवण करना , साधुओं के प्रति प्रेम रखना, मथुरा पुरी में निवास करना यह सभी भक्ति के अंग है यदि इन कार्यों को हम करते हैं तो हमें भक्ति का फल मिलता है।


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