चित्तौड़गढ़ / निंबाहेड़ा - *प्रभु का प्रिय बनने से पहले बनें परिवार के प्रिय– मुनि श्री युग प्रभ*
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निंबाहेड़ा। नवकार भवन में आयोजित चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला के अंतर्गत धर्मसभा को संबोधित करते हुए जैन संत मुनि श्री युग प्रभ जी म. सा. ने कहा कि संसार रूपी भवसागर से तिरने के लिए जीवन में दो बातें अत्यंत आवश्यक हैं – समर्पण का भाव और अहंकार का त्याग। जब तक मनुष्य के भीतर देव, गुरु और धर्म के प्रति समर्पण नहीं आता, तब तक वह आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकता।

मुनि श्री ने उदाहरण देते हुए कहा, "बर्फ का स्वभाव है ठंडक देना, अग्नि का स्वभाव है जलाना, ज़हर का स्वभाव है मारना – ठीक वैसे ही देव, गुरु और धर्म का स्वभाव है तारना।" उन्होंने कहा कि देवगुरु धर्म ही ऐसा मार्ग है, जिसमें आत्मा को संसार से तिराने की शक्ति है। इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी साधन में इतनी सामर्थ्य नहीं है।

श्रावक के चौथे गुण 'लोकप्रियता' पर विशेष बल देते हुए मुनि श्री ने कहा कि श्रावक को धर्म आराधना प्रसन्नता के साथ करनी चाहिए। समाज में रहने वाला श्रावक जब तक लोक में प्रिय नहीं बनता, तब तक वह धर्म का प्रभावी प्रचारक नहीं बन सकता। लोकप्रिय बनने के लिए संस्कारवान जीवन आवश्यक है।

उन्होंने कहा, "प्रभु का प्रिय बनने से पहले, परिवार का प्रिय बनो।" जो व्यक्ति परिवार का प्रिय बन जाता है, वह समाज में जहाँ भी जाता है, वहाँ सम्मान, यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। परिवार का प्रिय बनने के लिए दो बातें जीवन में अनिवार्य हैं– बड़ों के प्रति आदर का भाव और छोटों के प्रति त्याग का भाव।

मुनि श्री ने एक सुंदर उपमा देते हुए कहा, "जैसे नींबू का रस और गुड़ की भेली पास-पास रखी हो, तो भी मक्खियाँ गुड़ की ओर ही आकर्षित होती हैं। उसी प्रकार जो व्यक्ति जीवन में आदर और त्याग के साथ जीता है, वह ही सबके दिलों में राज करता है।" ऐसा व्यक्ति परिवार का ही नहीं, प्रभु का भी प्रिय बन जाता है।

अपने प्रवचन में मुनिश्री ने दुर्योधन, पांडव, राम और महावीर की भावनाओं का उल्लेख करते हुए वर्तमान समाज का दर्पण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि दुर्योधन की भावना थी: “मेरा सौ मेरा, तेरा भी मेरा।”पांडवों की भावना थी: “तेरा सौ तेरा, मेरा सौ मेरा।”राम की भावना थी: “तेरा सौ तेरा, लेकिन मेरा भी तेरा।”महावीर की भावना थी: “ना तेरा, ना मेरा – यह जग है रैन बसेरा।”

उन्होंने कहा कि आज अधिकतर लोग दुर्योधन की भावना में जी रहे हैं, जबकि प्रभु का प्रिय बनने के लिए महावीर जैसी समत्व दृष्टि अपनानी होगी। जो व्यक्ति ‘मेरा’ और ‘तेरा’ की सीमाओं से ऊपर उठता है, वही सच्चा साधक बनता है।

प्रवचन के अंत में सुश्री उन्नति सिरोया (सुपुत्री श्रीमती कविता एवं पंकज सिरोया) द्वारा 9 उपवास का प्रत्याख्यान ग्रहण किया गया। इस अवसर पर श्रीमती परिधि संचेती एवं श्रीमती चंदा छाजेड़ द्वारा उनका सम्मान किया गया। रविवार को लोगस्स का जाप भी संपन्न हुआ, जिसके लाभार्थी गुरुभक्त परिवार, उदयपुर रहे। धर्मसभा में निंबाहेड़ा सहित चित्तौड़गढ़, जावद, सतखंडा, बिलोदा, बिनोता, भदेसर आदि स्थानों से पधारे अनेक श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाएं उपस्थित रहे।


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