चित्तौड़गढ़ / निंबाहेड़ा - विजय दशमी पर आर्य समाज में शस्त्र पूजन
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चित्तौड़गढ़ - बेडच नदी में रेलवे पुलिया के नीचे मिला अज्ञात का शव, शिनाख्त में जुटी पुलिस

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रावण वध से पूर्व भी होता था विजय दशमी का आयोजन

सीधा सवाल। निम्बाहेड़ा। आर्य समाज प्रधान रविंद्र साहू नें हवन और शस्त्र पूजन करवाया जिसमें राधेश्याम धाकड़ और अरविंद कुमावत मुख्य यजमान बने दशरथ पाटीदार, भरत आर्य, विशाल साबू, रतनलाल राजोरा, किशनलाल माली, प्रभुलाल बैरवा, शिवलाल आँजना आदि ने आहुतियाँ दी। विशाल साबू ने बताया कि शौर्य, पराक्रम और क्षात्रधर्म का पर्व विजय दशमी आर्यों के प्रमुख पर्वों में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि विजयदशमी के नाम से जानी जाती है। यह एक वैदिक पर्व है जो आर्य जाति के शौर्य, तेज, बल तथा क्षात्रवृत्ति का परिचायक है। यह तो भगवान् राम के आविर्भाव और रावण वध के पहले से चला आ रहा क्षात्रधर्म का प्रतीक पर्व है। वैदिक धर्म में ब्रह्म शक्ति और क्षत्र शक्ति के समन्वित विकास की बात कही गई है। भारत के इतिहास तथा परम्परा में क्षात्रवृत्ति का अनुसरण करने वाले वीरों की गौरव गाथा का विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है। त्रेतायुग के दशरथ पुत्र वीरों का उल्लेख हमें स्मरण दिलाता है कि अत्याचार, अनाचार तथा आसुरी वृत्तियों को पराजित करने के लिए राम ने कितना पुरुषार्थ किया था। उनका वन गमन इसी उद्देश्य से हुआ था। मानसकार ने राम के मुख से कहलाया है- निशिचरहीन करौ मही भुज उठाय प्रण कीन। राम ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की- मैं इस धरती को असुरों से रहित कर दूंगा।

यजुर्वेद में कहा गया है-

यत्र ब्रह्मं च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह:।
जहां ब्रह्म और क्षत्र विद्वता और पराक्रम का समुचित समन्वय रहता है वहां पुण्य, प्रज्ञा तथा अग्नि तुल्य तेज और ओज रहता है। विजयदशमी तक वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में लगभग तीन चार मास तक निरन्तर वर्षा होती रहती थी। वीरों की विजय यात्राएं बंद हो गईं। अब बरसात के समाप्त होने पर रास्ते खुल गए। सेनाओं के आने जाने की कठिनाई दूर हो गई। इस ऋतु परिवर्तन का लाभ उठाकर प्राचीन काल में क्षत्रिय इस दिन अपने शस्त्रास्त्रों की सफाई करते थे। उन्हें पुनः काम में लाने लायक बनाते थे तथा राजाज्ञा से शास्त्रों की प्रदर्शनी लगाई जाती थी। वीर लोगों को अपनी अस्त्र शस्त्र विद्या के सार्वजनिक प्रदर्शन का अवसर मिलता था। आम जनता भी इन वीरों की शस्त्र विद्या तथा शौर्य प्रदर्शन को देखने के लिए बड़ी संख्या में एकत्रित होती थी। महाभारत में यह प्रसंग विस्तार से आता है जहां यह उल्लिखित हुआ है कि पितामह भीष्म के आदेश से आचार्य द्रोण ने अपने शिष्यों (कौरव एवं पाण्डव) को शस्त्रास्त्र कौशल को दिखाने के लिए एकत्र किया था। यह प्रदर्शन सार्वजनिक था।

रावण वध से पूर्व भी होता था विजय दशमी का आयोजन


सीधा सवाल। निम्बाहेड़ा। आर्य समाज प्रधान रविंद्र साहू नें हवन और शस्त्र पूजन करवाया जिसमें राधेश्याम धाकड़ और अरविंद कुमावत मुख्य यजमान बने दशरथ पाटीदार, भरत आर्य, विशाल साबू, रतनलाल राजोरा, किशनलाल माली, प्रभुलाल बैरवा, शिवलाल आँजना आदि ने आहुतियाँ दी। विशाल साबू ने बताया कि शौर्य, पराक्रम और क्षात्रधर्म का पर्व विजय दशमी आर्यों के प्रमुख पर्वों में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि विजयदशमी के नाम से जानी जाती है। यह एक वैदिक पर्व है जो आर्य जाति के शौर्य, तेज, बल तथा क्षात्रवृत्ति का परिचायक है। यह तो भगवान् राम के आविर्भाव और रावण वध के पहले से चला आ रहा क्षात्रधर्म का प्रतीक पर्व है। वैदिक धर्म में ब्रह्म शक्ति और क्षत्र शक्ति के समन्वित विकास की बात कही गई है। भारत के इतिहास तथा परम्परा में क्षात्रवृत्ति का अनुसरण करने वाले वीरों की गौरव गाथा का विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है। त्रेतायुग के दशरथ पुत्र वीरों का उल्लेख हमें स्मरण दिलाता है कि अत्याचार, अनाचार तथा आसुरी वृत्तियों को पराजित करने के लिए राम ने कितना पुरुषार्थ किया था। उनका वन गमन इसी उद्देश्य से हुआ था। मानसकार ने राम के मुख से कहलाया है- निशिचरहीन करौ मही भुज उठाय प्रण कीन। राम ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की- मैं इस धरती को असुरों से रहित कर दूंगा।


यजुर्वेद में कहा गया है-


यत्र ब्रह्मं च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह:।

जहां ब्रह्म और क्षत्र विद्वता और पराक्रम का समुचित समन्वय रहता है वहां पुण्य, प्रज्ञा तथा अग्नि तुल्य तेज और ओज रहता है। विजयदशमी तक वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में लगभग तीन चार मास तक निरन्तर वर्षा होती रहती थी। वीरों की विजय यात्राएं बंद हो गईं। अब बरसात के समाप्त होने पर रास्ते खुल गए। सेनाओं के आने जाने की कठिनाई दूर हो गई। इस ऋतु परिवर्तन का लाभ उठाकर प्राचीन काल में क्षत्रिय इस दिन अपने शस्त्रास्त्रों की सफाई करते थे। उन्हें पुनः काम में लाने लायक बनाते थे तथा राजाज्ञा से शास्त्रों की प्रदर्शनी लगाई जाती थी। वीर लोगों को अपनी अस्त्र शस्त्र विद्या के सार्वजनिक प्रदर्शन का अवसर मिलता था। आम जनता भी इन वीरों की शस्त्र विद्या तथा शौर्य प्रदर्शन को देखने के लिए बड़ी संख्या में एकत्रित होती थी। महाभारत में यह प्रसंग विस्तार से आता है जहां यह उल्लिखित हुआ है कि पितामह भीष्म के आदेश से आचार्य द्रोण ने अपने शिष्यों (कौरव एवं पाण्डव) को शस्त्रास्त्र कौशल को दिखाने के लिए एकत्र किया था। यह प्रदर्शन सार्वजनिक था।


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