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निम्बाहेड़ा।
चातुर्मास प्रवचन श्रृंखला के अंतर्गत स्थानीय शांति नगर स्थित नवकार भवन में आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए जैन संत मुनिश्री युग प्रभ मुनि जी म.सा. ने कहा कि "जब तक जीवन की तासीर नहीं बदलती, तब तक आत्मा का वास्तविक विकास संभव नहीं है।" उन्होंने कहा कि जैसे अंधकार में प्रकाश, मिठाई में मिठास, मुख में रोटी और दीप में ज्योति का महत्व होता है, वैसे ही जीवन में सत्संग का विशेष महत्व होता है। सत्संग से ही जीवन की दिशा और दशा दोनों बदलती हैं।
मुनिश्री ने संतों की संगति को जीवन के लिए श्रेयस्कर बताया और कहा कि संतों की उपस्थिति और वाणी, आत्मा के भीतर छिपे प्रकाश को उजागर करने का कार्य करती है। जीवन में परिवर्तन लाना हो, तो श्रेष्ठ संगति और सकारात्मक चिंतन की आवश्यकता होती है।
श्रावक के चौथे गुण "लोकप्रियता" पर विशेष बल
मुनिश्री ने जैन श्रावक धर्म के चौथे गुण "लोकप्रियता" पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लोकप्रिय बनने के लिए सबसे पहले "निंदा" रूपी दुर्गुण का त्याग करना आवश्यक है। जो व्यक्ति सदैव दूसरों की निंदा करता है, वह समाज में सम्मानित और लोकप्रिय नहीं बन सकता। उन्होंने कहा कि आज के समय में मनुष्य को भोजन से अधिक रस निंदा में आने लगा है, यही कारण है कि उसकी दृष्टि दूषित हो जाती है। जब दृष्टि दूषित होती है तो सुख भी दुःख का कारण बनता है, और यदि दृष्टि सुधर जाए तो दुःख भी जीवन में सुखद परिवर्तन ला सकता है।
मुनिश्री ने रूपक के माध्यम से समझाया कि "गुलाब के पौधे में कांटे अधिक होते हैं और फूल कम, फिर भी उसे 'गुलाब' कहा जाता है। हीरे की खदान में पत्थर अधिक और हीरे कम होते हैं, फिर भी उसे 'हीरे की खान' कहा जाता है। सोने की खान में मिट्टी अधिक होती है, सोना कम, फिर भी उसका मूल्य बना रहता है। इसी प्रकार मनुष्य में अवगुण अधिक हों, तो भी हमें गुणों को पहचानने का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए।"
उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति सदैव दूसरों की निंदा में लगा रहता है, वह गुणों को देख ही नहीं पाता और समाज में कभी प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। लोकप्रियता प्राप्त करने का दूसरा मार्ग है निंदनीय कार्यों का परित्याग, जो व्यक्ति स्वयं अपने आचरण को शुद्ध करता है, वही समाज में सम्मान प्राप्त करता है।
दूसरों के दुःख को देखने वाला सुखी बनता है
मुनिश्री ने करुणा और संवेदनशीलता को जीवन का मूल तत्व बताते हुए कहा कि "जिस व्यक्ति की दृष्टि दूसरों के दुःखों पर जाती है, वह स्वयं सुखी बनता है। किंतु जिसकी दृष्टि सदैव दूसरों के दोषों की ओर जाती है, वह पाप का भागी बनता है।" दूसरों के दुःख देखकर यदि हम अपने जीवन की दिशा सुधार लें, तो कई दुःखों से बच सकते हैं।
धर्मसभा में निम्बाहेड़ा सहित बिनोता, मुंबई, बेंगलुरु और उदयपुर से पधारे श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति रही। सभी श्रद्धालुजनों ने मुनिश्री के दिव्य प्रवचनों का श्रवण कर जीवन को धर्ममय बनाने का संकल्प लिया।
