डेस्क / लेख - 18 जून हल्दीघाटी शौर्य दिवस : ओ भाई प्रताप रो महाराज शक्तिसिंह
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अरविंदसिंह खोड़ियाखेड़ा
(महाराज शक्तिसिंह के वंशज)

मेवाड़ के इतिहास का एक ऐसा नाम जिनका योगदान अनूठा रहा है, लेकिन कुछ इतिहासकारों की मेहरबानी से ऐसे शूरवीर योद्धा के बारे में जनमानस में आज भी कई तरह की भ्रांतियां विद्यमान है, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह जो महाराणा प्रताप की तरह ही वीर, बहादुर ओर स्वाभिमानी थे, ये महाराणा उदयसिंह की दूसरी रानी सज्जाबाई सोलंकी के पुत्र थे। महाराणा प्रताप व महाराज शक्तिसिंह दोनों बचपन में साथ साथ खेलकर बड़े हुए, कुँवर शक्तिसिंह को आंखों पर पट्टी बांधकर शब्दभेदी बाण पकड़ने की अनूठी कला का भी ज्ञान था।
एक दिन महाराणा उदयसिंह के दरबार में एक तलवार बेचने वाला आया, दरबार में विराजमान मेवाड़ के सिरदार रूई व मख़मल के कपड़े से तलवार का परीक्षण कर रहे थे, कुँवर शक्तिसिंह को तलवार परीक्षण का ये तरीका पसंद नहीं आया, वो अपने आसन से खड़े हुए ओर तलवार को अपने अंगूठे पर चलाकर कहा कि राजपूत तलवार का ऐसे परीक्षण करते हैं, कुँवर शक्तिसिंह द्वारा तलवार परीक्षण के लिए अपनाए गए तरीके से महाराणा उदयसिंह बड़े नाराज हुए, उन्होंने कुँवर शक्तिसिंह को मेवाड़ से निर्वासित करने का आदेश दे दिया, इस पर सलुम्बर रावत सांईदास चूंडावत ने महाराणा उदयसिंह से कुँवर शक्तिसिंह को गोद रखने की विनती की, उस समय सलूम्बर रावत सांईदास चूंडावत के कोई पुत्र नहीं था, महाराणा उदयसिंह ने बड़ी अनुनय विनय के बाद सहमति प्रदान की, सांईदास चूंडावत ने कुँवर शक्तिसिंह की सलूम्बर में भव्य समारोह में गोद भराई की रस्म सम्पन्न कराई। कुछ समय बाद सलूम्बर रावत सांईदास चूंडावत के पुत्र हो जाता है जिससे कुँवर शक्तिसिंह सलूम्बर का राजपाट चूंडावतो के लिए त्यागकर मेवाड़ से निकल पड़ते हैं,1567 में महाराज शक्तिसिंह की मुलाकात धौलपुर में अकबर से होती है। महाराज शक्तिसिंह अकबर को कोर्निश तक नहीं करते हैं, अकबर महाराज शक्तिसिंह के समक्ष प्रस्ताव रखता है कि मैं चितौड़ पर आक्रमण करने जा रहा हूं उसमें अगर मेरी सहायता करोगे तो मैं तुम्हें वहां का स्वामी बना दूंगा। इस पर महाराज शक्तिसिंह मन ही मन बहुत क्रोधित होते हैं और विचार करते हैं कि ऐसा करना मातृभूमि मेवाड़ के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं होगा, इतिहास में मुझ पर कलंक लगेगा, महाराज शक्तिसिंह रातोंरात धौलपुर से अपनी मातृभूमि चितौड़ के लिए निकल पड़ते हैं, चितौड़ पहुँचकर महाराणा उदयसिंह को सूचना देते हैं कि अकबर कुछ समय बाद चितौड़ पर आक्रमण करने वाला है इसलिए आप सावधान रहें। वीर विनोद व ओझाजी लिखते है कि इसके बाद महाराज शक्तिसिंह दोबारा कभी मुगल सेवा में उपस्थित नहीं हुए, चितौड़ से महाराज शक्तिसिंह डूंगरपुर महारावल के वहां जाकर लगभग चार पांच वर्षों तक वहां रहते हैं,एक दिन किसी बात पर डूंगरपुर महारावल के मंत्री से विवाद होने पर महाराज शक्तिसिंह उनका वध कर देते हैं, उसके बाद महाराज शक्तिसिंह डूंगरपुर से भींडर के पास वैणगढ़ नामक स्थान पर आकर रहते हैं। यहां आकर अपनी स्वयं की एक सेना तैयार कर लेते हैं। उस समय भींडर में सोनिगरा चौहानों का शासन था,उनको मंदसौर के सैयद मुस्लिम बड़े परेशान कर रहे थे, एक दिन सैयदों ने भींडर में बहुत उत्पात मचाया ओर भींडर के सोनिगरा चौहानों को बंदी बना लिया। इस पर भींडर के सोनिगरा चौहानों ने महाराज शक्तिसिंह से मदद की गुहार लगाई जिसके बाद महाराज शक्तिसिंह ने अपनी सेना लेकर मंदसौर के सैयदों से युद्ध किया और उनको परास्त कर भींडर से मार भगाया। इससे महाराज शक्तिसिंह की कीर्ति आसपास फैल गई।
अब बात आती है हल्दीघाटी युद्ध की जिसको लेकर महाराज शक्तिसिंह के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां व्याप्त है कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महाराज शक्तिसिंह हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की सेना की तरफ़ से मौजूद थे, कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महाराज शक्तिसिंह हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की सेना की तरफ़ से उपस्थित नहीं थे, अकबर की तरफ़ से अगर महाराज शक्तिसिंह मौजूद होते तो तत्कालीन मुगल लेख़क महाराज शक्तिसिंह का जिक्र जरूर करते जबकि ऐसा किसी मुगल लेखक ने जिक्र नहीं किया है।
सगत रासो से पता चलता है कि हल्दीघाटी युद्ध के आसपास के समय मे महाराज शक्तिसिंह भींडर के आसपास वैणगढ़ नामक स्थान पर रह रहे थे, हो सकता है वो अपनी स्वयं की छोटी सेना लेकर महाराणा प्रताप की सहायता हेतु हल्दीघाटी पहुँचे हो और युद्ध पर नज़र बनाए हुए हो, अंत समय में जब चेतक का पैर कट जाता है और खुरासान व मुल्तान नामक दो मुगल सैनिक पीछे से आकर महाराणा प्रताप पर वार करने लगते है तभी महाराज शक्तिसिंह की नज़र उन पर पड़ती है तो महाराज शक्तिसिंह उन दो मुगल सैनिकों को मारकर बड़े भाई महाराणा प्रताप की रक्षा करते हैं स्वयं का नेटक(अकारा) घोड़ा महाराणा प्रताप को भेंट करते हैं और उन्हें युद्ध क्षेत्र से सकुशल बाहर निकालते हैं।
दूसरा तत्कालीन समय में शक्तिसिंह नाम के ओर भी पात्र हुए जयपुर राजघराने में शक्तिसिंह कच्छावा व अन्य राजघरानों में भी शक्तिसिंह नाम के ओर भी व्यक्ति हुए जिन्हें महाराणा प्रताप का भाई शक्तिसिंह सिसोदिया समझकर कुछ इतिहासकारों द्वारा बिना सच्चाई जाने प्रचारित किया गया।
अब जनमानस में महाराज शक्तिसिंह को लेकर भ्रांति व्याप्त है कि उनको सत्ता की महत्वकांक्षा थी जबकि वास्तविकता यह है कि उन्होंने तो सलूम्बर का राजपाट त्याग दिया ओर अकबर द्वारा चितौड़ के राजपाट के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
दूसरी भ्रांति यह है कि उन्होंने मुगलों को मेवाड़ की जानकारियां प्रदान की जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने सर्वप्रथम महाराणा उदयसिंह को यह जानकारी प्रदान की थी कि अकबर चितौड़ पर आक्रमण करने वाला है आप सचेत रहें।
तीसरी भ्रांति यह है कि महाराज शक्तिसिंह हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की सेना की तरफ़ से मौजूद थे जबकि सच्चाई यह है कि किसी भी मुगल इतिहासकार ने यह वर्णन नहीं किया है कि हल्दीघाटी युद्ध में महाराज शक्तिसिंह अकबर की सेना में मौजूद थे, ये सिर्फ़ कुछ इतिहासकारों की कपोल कल्पना है।
हल्दीघाटी युद्ध के कुछ समय बाद जब महाराणा प्रताप जगमाल से उदयपुर पर पुनः विजय अभियान चलाते है तब उस अभियान का सेनापति महाराणा प्रताप अपने छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह को बनाते हैं, महाराज शक्तिसिंह के नेतृत्व में विजय होती है और पुनः उदयपुर पर महाराणा प्रताप का राज कायम हो जाता है। उदयपुर विजय के बाद महाराणा प्रताप द्वारा महाराज शक्तिसिंह को मनचाही जागीर भेंट करने का प्रस्ताव रखतें है जिसे महाराज शक्तिसिंह ये कहकर स्वीकार नहीं करते है कि मुझे जागीरों की बिल्कुल चाह नहीं, जागीरें तो अब मैं जीत जीतकर आपको भेंट करूँगा, ऐसा कहकर अंत समय 1594 में स्वर्गवास तक भैंसरोडगढ़ में रहते है। भैंसरोडगढ़ में संकट के समय महाराणा प्रताप की माता व अन्य रानियां भी रहती थी।
महाराज शक्तिसिंह के स्वर्गवास के बाद उनके पाटवी पुत्र भाणजी का राजतिलक स्वयं महाराणा प्रताप द्वारा किया गया।
महाराज शक्तिसिंह के 17 पुत्र हुए उनमें से 8 से 10 पुत्र मेवाड़ के लिए विभिन्न युद्धों में लड़ते हुए बलिदान हुए जिसका वर्णन बहुत कम इतिहासकारों द्वारा किया गया है, जिनमें बल्लुदास, चतुर्भुज, मदन, जोध, दलपत, भूपत आदि हैं।
महाराज शक्तिसिंह के वंशजों को मेवाड़ की ओर से भींडर, बानसी आदि बड़े ठिकाने मिले।
इनके वंशज शक्तावत कहलाए इनको ख़ुरासान मुलतान रा आगल, दुणा दातार चौगुना झुंझार का विरुद मिला हुआ है।


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