डेस्क / लेख- रुको, जरा सोचो भारत से बाहर जाने वालों
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चित्तौड़गढ़ - आगे चल रहे ट्रक में घुसी कार, पीछे चल रहे ट्रक ने भी मारी टक्कर, देवरी पुलिया पर उड़े परखच्चे, सभी सुरक्षित

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आर.के. सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

भारत से बाहर किसी देश में जाकर बसने की हसरत तो लंबे समय से लाखों हिन्दुस्तानियों के दिलों में रही है। उन्हें लगता है कि भारत से बाहर किसी अन्य देश में जाकर बसना स्वर्ग से साक्षात्कार करने के समान ही है। वैश्विक महामारी कोरोना की दूसरी लहर के बाद तो हमारे समाज के एक बहुत बड़े तबके को ऐसा लगने लगा है कि देश से निकल जाने में ही भलाई है। वे इस बाबत आपस में बातें कर भी रहे हैं। लाखों नवयुवक देश से बाहर जाकर बसने की संभावनाओं को पता भी लगा रहे हैं। हालांकि लोग यह भूल रहे हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। अगर कोई भारत से बाहर जाकर बसना चाहता है तो उसे कोई रोक तो नहीं सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे बीच के ही एक तबके की यह इच्छा रहती है कि अगर वे भारत से निकल नहीं पाए तो कम से कम उनके बच्चे तो चले ही जाएं।

आप कभी मौका मिले तो सोमवार से शुक्रवार के बीच राजधानी के चाणक्यपुरी क्षेत्र का भ्रमण कीजिए। इधर विभिन्न देशों के दूतावास और उच्चायोग स्थित हैं। आपको इधर सुबह से ही बड़ी तादाद में महिलाएं, पुरुष और बच्चे इस तरह से घूमते हुए मिलेंगे मानो कि वे किसी शादी समारोह में भाग लेने के लिए जा रहे हों। पर ये सब इधर एक बड़े लक्ष्य को हासिल करने आते हैं। ये लगभग सभी कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर संयुक्त अरब अमीरत वगैरह के दूतावासों के आसपास चक्कर काट रहे होते हैं। ये अलग-अलग समूहों में खड़े होकर बतिया भी रहे होते हैं। नौ-साढ़े नौ बजे के बाद इनकी लंबी लाइनें लग जाती है दूतावासों के गेट पर। वैसे तो कुछ और दूतावासों और उच्चायोगों के बाहर भी वीजा की चाहत रखने वाले खड़े होते हैं, पर कनाडा उच्चायोग के बाहर सर्वाधिक लंबी लाइन होती है। इधर आने वालों के चेहरे के भाव पढ़ेंगे तो लगेगा मानो वे वीजा की जगह भीख मांग रहे हों। इनसे बात करने पर लगता है कि ये किसी भी कीमत पर देश से निकल जाना चाहते हैं। हम एक स्मार्ट से लग रहे नौजवान से इधर आने की वजह पूछते हैं। जवाब मिलता है, "कनाडा का वीजा लेने आए हैं।" क्यों जाना चाह रहे हैं कनाडा ? जवाब सुनिए- " यहां क्या करेंगे जी। वहां पर कुछ बिजनेस करेंगे। वहां पर हमारे गांव के बहुत से लोग पहले ही जा चुके हैं। सब मौज में हैं कनाडा में।"

दरअसल हमारे यहां सात समंदर पार जाकर बसे भारतीयों की सिर्फ कामयाबी की ही कहानियां छपती हैं। जबकि, कामयाब तो लाखों में कोई एक ही होता है। उनमें बात अमेरिका की उपराष्ट्रपति बनी कमला हैरिस से लेकर सूरीनाम के राष्ट्रपति बने चंद्रिका प्रसाद संतोखी की और न्यूजीलैंड की संसद में पहुंचे दो भारत वंशियों से लेकर साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम के सदस्य केशव महाराज की होती रहती है। इस क्रम में उन भारतीयों को छोड़ दिया जाता है जो बाहर जाकर सिर्फ धक्के खा रहे हैं। उन्हें उन देशों में कई पुश्त जी लेने के बाद भी दूसरे दर्जे का ही नागरिक माना जाता है। उनके मंदिरों और शिक्षण संस्थानों पर हमले होते रहते हैं। माना जाता है कि भारत के बाहर सर्वाधिक भारतीय मलेशिया और साउथ अफ्रीका में हैं। अगर बात मलेशिया की करें तो वहां भारतीयों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। इनके मंदिरों और स्कूलों पर कठमुल्ले हमले करते ही रहते हैं। प्रत्येक वर्ष होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन (पीबीडी) में मलेशिया की टोली भी आती है। इसके सदस्य अपनी व्यथा सुनाते हुए रो पड़ते हैं।

आप रियाद, दुबई या अबूधाबी एयरपोर्ट पर जैसे ही उतरते हैं, तो आपको चारों तरफ भारतीय ही मिलते हैं। इन्हें अरब देशों में कामकाज करवाने के लिए लाया तो जाता है। पर इन्हें वहां पर न्यूनतम वेतन, मेडिकल और इंश्योरेंस जैसी मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल पाती। पासपोर्ट रखवा लिए जाते हैं सो अलग। हालांकि भारत में रहने वालों को महसूस होता है कि खाड़ी के देशों में जाकर तो जिंदगी में खुशहाली आ जाती है। पर यह सच नहीं है। कुछ साल पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यूएई और सऊदी अरब की यात्राओं पर गए थे। उधर उन्होंने वहां के नेताओं से भारतीय श्रमिकों से जुड़े मसलों के संबंध में भी बात की। उसका तत्काल लाभ भी हुआ। यूएई और बाकी खाड़ी देशों में लाखों भारतीय कुशल-अकुशल श्रमिक विनिर्माण परियोजनाएं से लेकर दुकानों वगैरह में काम कर रहे हैं। निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों से भारतीय मजदूरों की खराब हालत में सुधार शुरू हुआ। ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि खाड़ी देशों में बंधुआ मजदूरों की हालत में ही भारतीय श्रमिक काम करते रहे हैं।

आप कभी सिंगापुर जाइये। वहां की सुंदर और गगनचुंबी इमारतों को देखकर एकबार तो कोई यकीन नहीं करता कि ये भी धरती का हिस्सा है। पर इसी सिंगापुर में आपको लिटिल इंडिया नाम की एक जगह मिलेगी। वहां पर पहुंच कर लगेगा कि आप दक्षिण भारत के किसी शहर के पुराने वाले भाग में ही हैं। वहां पर बड़ी संख्या में तमिल भाषी भारतीय छोटी-मोटी दुकानें चलाकर जिंदगी बसर कर रहे हैं। उन्हें या उनकी दुकानों को देखकर कतई नहीं लगता कि वे बहुत खुशहाल होंगे। मुझे सिंगापुर के रेस्तरां में बहुत से भारतीय नौजवान वेटर का काम करते हुए मिले। ये ज्यादातर पंजाब से हैं। मैंने एकबार देखने में खूबसूरत इन युवाओं से यहां पर आने की वजह पूछी। सबका एक-सा जवाब मिला कि भारत में कुछ खास करने को नहीं है। ये नौजवान अपने परिवारों की जमीनें बेचकर यहां वेटर का काम करने के लिए आ गए। इन्हें अधिक कुरेदो तो इतना ही कहते हैं कि "यहां महंगाई बहुत है। पैसा बचता ही नहीं।"
यकीन मानिए कि ये गलत सूचनाओं को आधार मानकर यहां आ जाते हैं। उसके बाद इनके पास वापस घर जाने का भी विकल्प नहीं होता। वापसी टिकट तक के पैसे नहीं होते। इनके ख्वाब बिखर जाते हैं। हां, निश्चित रूप से उन भारतीयों को विभिन्न देशों में नौकरी के बेहतर अवसर मिल जाते हैं जिनकी शैक्षणिक योग्यता स्तरीय होती है। उदाहरण के रूप में डॉक्टरों, आईटी पेशवरों, बैंकरों आदि को अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि में ठीक-ठाक काम मिल जाता है। ये अच्छा पैसा अपने परिवारों के लिए कमाने भी लगते हैं। पर शेष बाहर जाकर दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाते हैं। इसलिए देश से बाहर जाने या जाकर बसने का इरादा रखने वाले पहले शांत मन से थोड़ा सोच लें।


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