महाराणा प्रताप जयंती विशेष : एकलिंग दीवान राष्ट्रगौरव राणा क़ीक़ा
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सीधा सवाल। चित्तौड़गढ़। ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया रविवार सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए विक्रम संवत 1597(ईसवी सन 9 मई 1540) के दिन महारानी जयवंता बाईजी की कोख़ से मेवाड़ के राजकुमार कुँवर प्रताप का जन्म हुआ। कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि उसी दिन महाराणा उदयसिंह ने चितौड़ पर विजय प्राप्त कर बनवीर के क़ुराज को समाप्त किया था जिससे प्रजा में उत्साह का संचार हो गया ओर खुशियां दुगुनी हो गई। माता जयवंता बाईजी की देखरेख में कुँवर प्रताप का लालन पालन हुआ। माता ने अपने कुल गौरव बप्पा रावल,राणा हम्मीर,राणा कुंभा,राणा सांगा की शौर्य गाथाएं सुनाकर प्रताप को भविष्य के लिए सदैव स्वाभिमानी व निडर बनाया। कुँवर प्रताप धीरे-धीरे मेवाड़ की आम जनता में घुलने मिलने लगे ओर लोकप्रिय हो गए। जनता प्रताप को क़ीक़ा नाम से सम्बोधित करने लगी। क़ीक़ा एक वागड़ी शब्द है। जिसका अर्थ पुत्र या बेटा होता है।मेवाड़ के कई भागों में क़ीक़ा की जगह कूका का उच्चारण भी किया जाता है। 1572 में महाराणा उदयसिंह का स्वर्गवास होता है और स्वर्गवास के पूर्व जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित कर देने से मेवाड़ के सामंत व प्रजा जगमाल को महाराणा के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर देते हैं। सामंतो व प्रजा की सर्वसम्मति से प्रताप को मेवाड़ का महाराणा घोषित किया जाता है। इससे एक बात तो साफ़ है कि मेवाड़ में राजतंत्र में भी लोकतंत्र था जिसमें हर कार्य में प्रजा की भागीदारी थी। मेवाड़ के महाराणा स्वयं को कभी महाराणा मानते ही नहीं थे। महाराणा तो आराध्यदेव एकलिंगजी को मानते हैं और स्वयं को उनका दीवान मानते हैं। इसलिए मेवाड़ के महाराणा को एकलिंग दीवान कहा जाता है। जिस समय प्रताप के हाथों में मेवाड़ की कमान आई उस समय परिस्थितियां विकट थी। लेकिन प्रताप ने साहस,धैर्य व सूझबूझ से काम लिया। जब अक़बर अपनी साम्राज्यवादी नीति के तहत मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए कई बार वार्ता के लिए दूत भेजता है। लेक़िन स्वाभिमानी राणा प्रताप सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। प्रताप के लिए स्वाभिमान से बढ़कर कुछ भी नहीं था। महाराणा प्रताप ही थे जिन्होंनेअक़बर के पूरे हिदुस्तान में राज करने के सपने को कभी पूरा नहीं होने दिया। 1576 में अंततः हल्दीघाटी में अकबर की सेना व महाराणा प्रताप के मध्य भीषण युद्ध होता है जिसमें राणा प्रताप व मेवाड़ी सेना ने जो शौर्य व पराक्रम दिखाया उसे इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज किया गया। हल्दीघाटी युद्ध के बाद 1583 में दिवेर युद्ध में पुनः महाराणा प्रताप मुगलों को बुरी तरह परास्त करते है। इस युद्ध में महाराणा प्रताप बहलोल खां को तलवार से घोड़े सहित काट देते हैं। तथा कुँवर अमर सिंह सेरिमा सुल्तान खां पर भाले से वार करते हैं,वह भाला सुल्तान खां के सीने में पार होकर ज़मीन में धंस जाता है। इस युद्ध में मेवाड़ी शूरवीरों ने मुगलों की 36 के आसपास चौकियों को नष्ट कर दिया। मुग़ल सेना के 15-20 हज़ार सैनिक महाराणा प्रताप के सामने आत्म समर्पण करते हैं। दिवेर विजय के कुछ वर्ष बाद महाराणा प्रताप चावंड को अपनी राजधानी बनाते हैं। चावंड प्राकृतिक व सुरक्षा दोनों ही दृष्टि से उपयुक्त जगह थी।चावंड में महाराणा प्रताप चामुंडा माता का मंदिर बनवाते हैं। चावंड में रहते हुए महाराणा प्रताप आमेर रियासत के मालपुरा पर आक्रमण करते हैं और मालपुरा पर विजय हासिल करते हैं। कुछ इतिहासकार मालपुरा विजय की घटना को अमर सिंह के काल की भी मानते हैं। चावंड में महाराणा प्रताप ने कई चित्रकारों को शरण दी और उनको प्रोत्साहन दिया जिसके कारण चावंड की चित्रकला शैली चर्मोत्कर्ष पर पहुँचीं। चावंड में ही महाराणा प्रताप के आदेश पर पंडित चक्रपाणी मिश्र ने कई ऐतिहासिक ग्रंथो की रचना की जिसमें राज्याभिषेक पद्धति, मुहूर्तमाला, विश्ववल्लभ प्रमुख हैं। माघ शुक्ल एकादशी विक्रम संवत 1653 (ईसवी सन 19 जनवरी 1597) के दिन मेवाड़ रत्न महाराणा प्रताप का स्वर्गवास हुआ। मेवाड़ की प्रजा के राणा क़ीक़ा चावंड बंडोली कि समाधि में लीन हो गए।
1576 हल्दीघाटी युद्ध से लेकर स्वर्गवास तक महाराणा प्रताप ने छोटे बड़े 30 से अधिक युद्ध लड़े ओर अधिकांश युद्धों में विजय हासिल की। ऐसे तो महाराणा प्रताप के हर युद्ध में सर्वसमाज की पूर्ण भागीदारी रही। लेकिन विशेष रुप से भील जनजाति का जो आजीवन सहयोग रहा। सम्पूर्ण मेवाड़वासी इसके सदैव ऋणी रहेंगे।
महाराणा प्रताप का पूरा जीवन प्रेरणादायी हैं। उन्होंने कभी मुगलों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। अपनी मातृभूमि व प्रजा के लिए संघर्ष किया। जो व्यक्ति अपने कर्तव्य व मानव कल्याण के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। उसे युग युगांतर तक स्मरण रखा जाता है।हर व्यक्ति को एक बार अपने जीवनकाल में ऐसे प्रातःस्मरणीय महापुरुष के समाधि स्थल महातीर्थ चावंड के दर्शन अवश्य करने चाहिए।

अरविंदसिंह "खोड़ियाखेड़ा"
(महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह के वंशज)


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