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राजस्थान का चित्तौड़गढ़ जिला जो अफीम काश्त के लिए मशहूर है पिछले कुछ सालों से धर्म आस्था, और परम्परा के नाम पर अफीम और उसके सहायक नशे उत्पाद में डूबता जा रहा है। हालात यह हो चुके है कि सामाजिक कार्यक्रमों में अब अफीम पानी यानि रियाण की परम्परा भी यहां के गांवों में स्थापित हो चुकी है। यह हालात किसी से छुपे नहीं है और सभी जिम्मेदार मूकदर्शक बने हुए हैं वे इस नशे की खेती को हतोत्साहित करने की बजाय और बढ़ावा दे रहे हैं।
जिले की लगभग सभी चौदह तहसील क्षेत्रों में अफीम उत्पादन होता है और इनमें भी खेतीहर जाति बाहुल्य गांव जैसे जाट, गुर्जर, धाकड़ गायरी समाज अफीम खेती में ही लगा हुआ है। अब से कुछ वर्षों पूर्व तक अफीम की बोवनी से लेकर चिराई तक अफीम काश्तकार क्षेत्र के देवरों अथवा जो भी उनके आराध्य देव है उनके चरणों में मन्नत मांगते है कि अफीम की अच्छी उपज हो, इसके बदले में किसान मा छंटाक भर अफीम अपने आराध्य को चढ़ाते है। यह परम्परा अब बदल चुकी है और देवरों के भोपे और मंदिरों के सेवक अफीम काश्तकार से मा मात्रा में अफीम चढत्राने को कहते हैं और काश्तकार भगवान के सेवक के आदेश की पालना करते है। चढावे के बाद यही अफीम नशे प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांट दी जाती है तो कुछ हिस्सा आरक्षित रख इन देव स्थानों पर आने वाले परिचितों को प्रसाद के रूप में पिलाने का सतत धार्मिक कार्यक्रम चलता ही रहता है। क्षे. के एक प्रमुख कृष्णधाम पर भी भारी मात्रा में अफीम चढ़ावे के रूप में आती है जो इसी तरह बीते एक दशक में एक क्विंटल से अधिक मात्रा में प्रसाद के रूप में नशे की भेंट चढ़ गई। धर्म स्थलों से अफीम को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने वाले अब पूर्णतः नशेड़ी बन गये हैं।
इसी तरह इन क्षेत्रों में शादी, विवाह, मृत्यु भोज या अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में भी अब मारवाड़ की तर्ज पर अफीम का पानी यानि रियाण ग्रहण करने की परम्परा बन गई हैं इस परम्परा को खास लोग जैसे राजनीतिबाज भी अपने घर में होने वाले किसी भी कार्यक्रम में अपना रहे है। उपरोक्त खेतीहर जातियों में जब कभी किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो शोक निवारण के भोज में कुछ सालों पूर्व तक शक्कर कितनी खपी इससे उस परिवार के रूतबे का आंकलन होता था लेकिन बीते कुछ सालों में जाति बिरादरी में ऐसे मौकों पर पूछा जाता है कि अफीम कितनी उठी ? जिसके कार्यक्रम में जितनी ज्यादा अफीम खपती है उसे समाज में ज्यादा प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता है। इसके साथ ही अपनी यौन याक्ति कमजोर पड़ने पर भी अफीम अफीम के नशे को प्रमुखता दी जा रही है। वहीं अबोध बालक को सुलाने के लिए महिलाएं अब उन्हें अपने सीने से नहीं लगाती बल्कि अफीम चटवाकर सुला देती है। यानि कि अबोध आयु से ही नयो की खुराक देकर पक्का नशेड़ी बनाया जा रहा है जो आने वाले समय में समाज में भयावह स्थिति उत्पनन कर देगा।
ऐसा नहीं कि नशा रोकने के लिए बनी जांच एजेंसिया इससे वाकिफ नहीं है लेकिन वे धर्म, आस्था और सामाजिक परम्परा का नाम देकर बढ़ती नशाखोरी को रोक पाने में असफल है। लोगों में बढ़ती नशे की प्रवृति को हतोत्साहित करने के लिए दस वर्ष पूर्व अंतर्राष्ट्रीय नीति बनाई गई जिसे तमाम अफीम उत्पादक देशों ने स्वीकार किया था। इसमें कहा गया कि अफीम केवल दवाईयां बनाने के काम में ही आती है अथवा नशे के लिए इसका उपयोग किया जाता है जो तस्करी के जरिये नशेड़ियों तक पहुंचती है। एक ओर जहां समाज नशे की गिरफ्त में फंसता जा रहा है तो तस्करी से कमाया हुआ पैसा हथियारों की खरीद फरोख्त में काम आने से अपराध व आतंकवाद को बल मिल रहा है ऐसे में अफीम खेती को हतोत्साहित करने के लिए बनाई इस अंतर्राष्ट्रीय नीति में किये प्रावधानों को 2020 तक पूर्णतः लागू करना था लेकिन इनमें से भारत सरकार अब तक केवल अफीम डोडों की लायसेंसी खरीद फरोख्त और नशे के परमिट बंद करने तक ही फौरी तौर पर सीमित हो गई जबकि अब तक अफीम का रकबा दवा उत्पादन में कोडिन की जरूरत मुताबिक रखने और मेडिकल कंपनियों को अफीम पौधे से समस्त अफीम निकालने की नीति क्षेत्र के राजनेताओं ने ओट बैंक के लालच में लागू ही नहीं होने दी। इतना ही नहीं बल्कि नये पट्टे जारी कर रकबे को औश्र बढ़ा दिया गया। हमारे नेताओं के इन तौर तरीकों से यह कहा जा सकता है कि हम जिन्हें अपनी बेहबूदी के लिए चुनकर भेज रहे हैं वे ना केवल समाज को नशे में झौंक रहे हैं बल्कि देश में समाज में अपराध व आतंकवाद को भी बढ़ावा दे रहे हैं जिसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
जिले की लगभग सभी चौदह तहसील क्षेत्रों में अफीम उत्पादन होता है और इनमें भी खेतीहर जाति बाहुल्य गांव जैसे जाट, गुर्जर, धाकड़ गायरी समाज अफीम खेती में ही लगा हुआ है। अब से कुछ वर्षों पूर्व तक अफीम की बोवनी से लेकर चिराई तक अफीम काश्तकार क्षेत्र के देवरों अथवा जो भी उनके आराध्य देव है उनके चरणों में मन्नत मांगते है कि अफीम की अच्छी उपज हो, इसके बदले में किसान मा छंटाक भर अफीम अपने आराध्य को चढ़ाते है। यह परम्परा अब बदल चुकी है और देवरों के भोपे और मंदिरों के सेवक अफीम काश्तकार से मा मात्रा में अफीम चढत्राने को कहते हैं और काश्तकार भगवान के सेवक के आदेश की पालना करते है। चढावे के बाद यही अफीम नशे प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांट दी जाती है तो कुछ हिस्सा आरक्षित रख इन देव स्थानों पर आने वाले परिचितों को प्रसाद के रूप में पिलाने का सतत धार्मिक कार्यक्रम चलता ही रहता है। क्षे. के एक प्रमुख कृष्णधाम पर भी भारी मात्रा में अफीम चढ़ावे के रूप में आती है जो इसी तरह बीते एक दशक में एक क्विंटल से अधिक मात्रा में प्रसाद के रूप में नशे की भेंट चढ़ गई। धर्म स्थलों से अफीम को प्रसाद के रूप में ग्रहण करने वाले अब पूर्णतः नशेड़ी बन गये हैं।
इसी तरह इन क्षेत्रों में शादी, विवाह, मृत्यु भोज या अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में भी अब मारवाड़ की तर्ज पर अफीम का पानी यानि रियाण ग्रहण करने की परम्परा बन गई हैं इस परम्परा को खास लोग जैसे राजनीतिबाज भी अपने घर में होने वाले किसी भी कार्यक्रम में अपना रहे है। उपरोक्त खेतीहर जातियों में जब कभी किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो शोक निवारण के भोज में कुछ सालों पूर्व तक शक्कर कितनी खपी इससे उस परिवार के रूतबे का आंकलन होता था लेकिन बीते कुछ सालों में जाति बिरादरी में ऐसे मौकों पर पूछा जाता है कि अफीम कितनी उठी ? जिसके कार्यक्रम में जितनी ज्यादा अफीम खपती है उसे समाज में ज्यादा प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता है। इसके साथ ही अपनी यौन याक्ति कमजोर पड़ने पर भी अफीम अफीम के नशे को प्रमुखता दी जा रही है। वहीं अबोध बालक को सुलाने के लिए महिलाएं अब उन्हें अपने सीने से नहीं लगाती बल्कि अफीम चटवाकर सुला देती है। यानि कि अबोध आयु से ही नयो की खुराक देकर पक्का नशेड़ी बनाया जा रहा है जो आने वाले समय में समाज में भयावह स्थिति उत्पनन कर देगा।
ऐसा नहीं कि नशा रोकने के लिए बनी जांच एजेंसिया इससे वाकिफ नहीं है लेकिन वे धर्म, आस्था और सामाजिक परम्परा का नाम देकर बढ़ती नशाखोरी को रोक पाने में असफल है। लोगों में बढ़ती नशे की प्रवृति को हतोत्साहित करने के लिए दस वर्ष पूर्व अंतर्राष्ट्रीय नीति बनाई गई जिसे तमाम अफीम उत्पादक देशों ने स्वीकार किया था। इसमें कहा गया कि अफीम केवल दवाईयां बनाने के काम में ही आती है अथवा नशे के लिए इसका उपयोग किया जाता है जो तस्करी के जरिये नशेड़ियों तक पहुंचती है। एक ओर जहां समाज नशे की गिरफ्त में फंसता जा रहा है तो तस्करी से कमाया हुआ पैसा हथियारों की खरीद फरोख्त में काम आने से अपराध व आतंकवाद को बल मिल रहा है ऐसे में अफीम खेती को हतोत्साहित करने के लिए बनाई इस अंतर्राष्ट्रीय नीति में किये प्रावधानों को 2020 तक पूर्णतः लागू करना था लेकिन इनमें से भारत सरकार अब तक केवल अफीम डोडों की लायसेंसी खरीद फरोख्त और नशे के परमिट बंद करने तक ही फौरी तौर पर सीमित हो गई जबकि अब तक अफीम का रकबा दवा उत्पादन में कोडिन की जरूरत मुताबिक रखने और मेडिकल कंपनियों को अफीम पौधे से समस्त अफीम निकालने की नीति क्षेत्र के राजनेताओं ने ओट बैंक के लालच में लागू ही नहीं होने दी। इतना ही नहीं बल्कि नये पट्टे जारी कर रकबे को औश्र बढ़ा दिया गया। हमारे नेताओं के इन तौर तरीकों से यह कहा जा सकता है कि हम जिन्हें अपनी बेहबूदी के लिए चुनकर भेज रहे हैं वे ना केवल समाज को नशे में झौंक रहे हैं बल्कि देश में समाज में अपराध व आतंकवाद को भी बढ़ावा दे रहे हैं जिसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
(भुवनेश व्यास, अधिमान्य पत्रकार)