12 जनवरी 1934 : दो क्राँतिकारियों सूर्यसेन और तारकेश्वर दत्त का बलिदान
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास साधारण नहीं है । इसमें बलिदान के कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं, जिन्हें पढ़कर आत्मा काँप उठती है। क्राँतिकारी सूर्यसेन और तारकेश्वर दत्त को फाँसी देने से पहले अमानवीय यातनाएँ दी गई। हथौड़े से दाँत तोड़े गये नाखून उखाड़े गये और फाँसी के बाद शव समन्दर में फेंक दिये गये।





इतिहास के पन्नों में अधूरी सी यह कहानी उन क्रान्तिकारियों की है, जिन्होंने चटगांव बंदरगाह पर अंग्रेजों का शस्त्रागार लूटकर सशस्त्र क्रान्ति की योजना बनाई थी । इस अभियान के नायक क्राँतिकारी सूर्यसेन थे। वे शिक्षक थे। उन्होंने अपने पचास से अधिक विद्यार्थियों का यह क्राँतिकारी दल बनाया था । सूर्य सेन के पिता रमानिरंजन चटगांव के नोआपाड़ा क्षेत्र के निवासी थे । 22 मार्च, 1894 को जन्मे सूर्यसेन छात्र जीवन से ही क्राँतिकारी आँदोलन से जुड़ गये थे । 1916 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान अनुशीलन समूह से जुड़े और बहरामपुर में बीए की पढ़ाई क्राँतिकारी संस्था युगान्तर से जुड़े । समय के साथ शिक्षक बने लेकिन अपने शिक्षकीय दायित्व के साथ युवाओं में भारत की स्वाधीनता के लिये क्राँतिकारी आँदोलन से जोड़ने लगे ।







जब इनका समूह बड़ा हो गया तब इसका नाम भारतीय रिपब्लिकन सेना रखा गया । रिपब्लिकन सेना ने सशस्त्र अभियान से अंग्रेजों को बाहर करने की योजना बनाई । इसके लिए शस्त्र जुटाने के लिये अंग्रेजों का चटगांव शस्त्रागार लूटा गया । चटगांव में दो शस्त्रागार थे । योजनानुसार 18 अप्रैल, 1930 की रात दस बजे कुल 65 क्राँतिकारियों ने दोनों शस्त्रागारों पर धावा बोल दिया । सूर्यसेन ने क्रातिकारियों की तीन टुकड़ियाँ बनाईं। पहली टुकड़ी के सोलह क्राँतिकारियों के समूह ने पुलिस शस्त्रागार पर धावा बोला। इसका नेतृत्व गणेश घोष कर रहे थे। तो लोकेन्द्र नाथ के नेतृत्व में दूसरी टुकड़ी ने सेना के शस्त्रागार पर अपना अधिकार कर लिया। तीसरी सशस्त्र टुकड़ी ने इन दोनों दलों को कवर करके सुरक्षा दी ताकि ये शस्त्र लेकर सुरक्षित निकल सकें।







भारतीय रिपब्लिकन सेना के इस अभियान की एक सफलता यह थी कि शस्त्रागार पर धावा बोलने से पहले क्राँतिकारियों ने टेलीफोन, टेलीग्राफ और रेलवे लाइन आदि संपर्क के सभी सूत्र काट दिये थे लेकिन एक असफलता यह थी कि हथियार तो मिले पर गोला बारूद नहीं मिला, जिससे इन हथियारों की उपयोगिता ही न रह गई थी । दूसरी सबसे बड़ी चूक यह रही कि शस्त्रागार में एक गुप्त अलार्म भी था, जिसकी जानकारी क्राँतिकारियों को नहीं थी। जब क्राँतिकारी हथियार एकत्र करके गोला बारूद ढूंढ रहे थे, तब वहाँ तैनात सुरक्षा कर्मियों ने चुपके से अलार्म बजा दिया । हथियार लूटकर सभी क्रांतिकारी पुलिस शस्त्रागार के बाहर एकत्र हुए, जहां सबने इस अभियान के नायक क्राँतिकारी सूर्यसेन को सैन्य सलामी दी और राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। यहीं एक अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की घोषणा भी कर दी गई। सुबह होते होते सभी क्रांतिकारियों ने चटगांव नगर छोड़ दिया और कुल चार समूहों में विभाजित होकर अलग-अलग दिशाओं में चले गये ।







लगभग तीन वर्षों तक इस समूह ने बंगाल के विभिन्न स्थानों पर धावा बोला और अनेक अत्याचारी अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतारा। अंग्रेजों ने सूर्यसेन पर दस हजार रुपये का इनाम घोषित किया और मुखबिर भी तलाशे । किसी विश्वासघाती के कारण क्राँतिकारियों के छिपे होने की सूचना अंग्रेजों को मिल गई। सेना ने घेर लिया । मुकाबला हुआ । सेना के सत्तर जवान और चौदह क्राँतिकारी बलिदान हुए। नायक सूर्यसेन और तारकेश्वर सहित कुछ क्राँतिकारी सुरक्षित निकल गये लेकिन 16 फरवरी, 1933 को ये दोनों भी गिरफ्तार कर लिये गये ।







जेल में अमानवीय यातनाओं का क्रम चला । अंग्रेज अधिकारी इनसे रिपब्लिकन आर्मी से जुड़े अन्य नाम और साधन देने वालों के नाम जानना चाहते थे परन्तु असफल रहे । अंततः जनवरी 1934 को तारेश्वर दस्तीदार और सूर्य सेन दोनों को फाँसी दे गई। फाँसी से पहले हथौड़े से दोनों के दाँत तोड़े गये नाखून निकाले गए। इतनी यातनाएं दी गईं कि शरीर से हड्डियाँ झांकने लगीं। अंत में फाँसी पर लटका दिया गया । इन दोनों का अंतिम संस्कार तक न हुआ । दोनों क्राँतिकारियों के शव समन्दर में फेक दिये गये ।







जिन दिनों सेना और पुलिस क्रांतिकारियों के समूहों को ढूंढकर समाप्त करने के अभियान में लगे थे और रिपब्लिकन आर्मी बिखर रही थी तब "मास्टरदा" सूर्यसेन को अपने अंत का आभास हो गया था । उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र लिखकर अपने अंत का संकेत दे दिया था । पत्र में लिखा था कि "मौत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे रही है। मेरा मन अनन्तकाल की ओर उड़ रहा है ... ऐसे सुखद समय पर, ऐसे गंभीर क्षण में, मैं तुम सब के पास क्या छोड़ जाऊंगा ? केवल एक चीज, यह मेरा सपना है, एक सुनहरा सपना- स्वतंत्र भारत का सपना .... कभी भी 18 अप्रैल, 1930, चटगांव के विद्रोह के दिन को मत भूलना ... अपने दिल के देशभक्तों के नाम को स्वर्णिम अक्षरों में लिखना, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता की वेदी पर अपना जीवन बलिदान किया है।" यह पत्र कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है ।


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