कोटा - तो फिर कहां से आते हैं ये लोग ?
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चित्तौड़गढ़ - छह टन से ज्यादा खैर की लकड़ी पकड़ी, निगरानी के दौरान वन विभाग की टीम का पैंथर से हुआ सामना

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देश की अर्थव्यवस्था को ये मजबूत नहीं करते
 सरकारी खजाने में करोड़ों रुपए नहीं भरते
महामारी में भी अपनों से मिलने को हैं आतुर
क्यों भला ये लोग मौत से भी नहीं डरते।।
जब थकते हैं तो क्यों सो जाते हैं पटरियों पर
जिनकी गिनती सरकारी आंकड़े भी नहीं करते।
और ए सी में बैठकर पैकेज बनाने वाले क्या जाने
इनका वोट नहीं होता तो तुम राजनीति किस पर करते।।
क्या करें.................
ज़रूरत पड़ी जब ज़िन्दगी की तो इन्हीं के खिलाफ हो गया संयोग
आज खुदा भी खुद से पूछ रहा आखिर कहां से आते हैं ये लोग
कहां से आते हैं ये लोग.....
जिस मजदूर ने थी कभी बड़ी बड़ी इमारतें बनाई
 अपने पसीने से सींचकर खादी जिसने हमें पहनाई
जिसने मेहनत से पत्थर में भगवान को तराशा
नहीं समझ रही जिनकी सियासत आज कोई भाषा
जिसकी चली गई आवाज़ बस मौन रहकर बोल रहा है
मजदूर दिवस वाले देश में मजदूर सड़कों पर डोल रहा है
खून वतन का खोल रहा है.....

अखबार का पहला पन्ना हो या टी वी चैनल की डिबेट , आज हर कहीं कुछ नज़र आ रहा है तो सिर्फ एक ही मुद्दा। जैसे सियासत को आने वाले चुनावों का कोई एजेंडा मिल गया हो।
जो मजदूर बचाएगा, वही विधाता कहलाएगा।
लेकिन आखिर इस सबके बीच कभी किसी ने ये सोचने की ज़हमत उठाई की सालों साल तक अपने घर से दूर रहने वाले मज़दूर आज इतने मजबूर क्यों हो गए की उन्हें घर याद आने लगा और जो जहां है वहीं से पैदल घर जाने लगा। क्या किसी नेता ने इनके दिल की बात को समझने की कोशिश भी की?
शायद नहीं। क्योंकि अभी चुनाव नहीं है ना। ये वक्त तो तनाव का है, और तनाव तो हमारे देश में ज़िम्मेदार लेते ही कहां हैं। आज ये लोग लाखों की तादाद में तपती दुपहरी में भी सड़कों पर चलने को मजबूर हैं। छुप छुपकर ट्रकों में पशुओं की तरह ही सही लेकिन घर जाना चाहते हैं। क्योंकि जीवन के सबसे बुरे दौर से अगर कोई इस समय गुजरता दिखाई दे रहा है तो वो इस देश का मजदूर है।पर क्या करें.......
मजदूर है इसीलिए मजबूर है।
रोजाना मेहनत करके कमाने वाली ये कौम लॉक डाऊन होने पर रोजगार के लिए चिंतित थी। पर वक्त निकलता गया और रोजगार,रोटी,सुख चैन सब छिनता चला गया। सड़क पर चलते हैं तो कोई वाहन टक्कर मार जाता है। पटरियों पर थक कर सो गए तो नींद ही नहीं टूटी। ट्रक में जाए तो एक्सीडेंट जान ले लेता है और पैदल चलें तो बैल बेचना पड़ जाता है।

निकले थे अपनों के पास आने को
न जाने कौनसी ये राह मिल गई।
काली सी बनकर आई एक रात और सैकड़ों ज़िन्दगी लील गई।।

किसी का दो साल का बच्चा लू के थपेड़े सहकर भी चल रहा है। कोई अपने माता पिता को कंधे और साईकिल पर बिठाकर घर नहीं ला रहा मानो श्रवण कुमार की तरह तीरथ कराने निकला हो।
किसी ने दशकों पहले खाई एक दूजे का साथ निभाने की कसम बुढ़ापे में एक दूसरे के हाथ पकड़कर सहारा देते सड़कों पर पूरी हो रही है तो किसी नन्हे की आंखें सड़क पर मृत मां को आवाज़ें लगाकर रो रही हैं।
दरअसल ये मजदूर,मजबूर होकर के निकला था। महामारी है तो क्या हुआ। बहुत साल हो गए अपने बचपन का वो आंगन नहीं देखा,चलो देख आते हैं। तो किसी को बड़े शहरों का मोहभंग ले आया। जो भी हो,ये लोग बरसों से अपने गांव के घर में खुशियां देने आए थे। अपने आंगन का सूनापन दूर करने आए थे।
कोई अपने बाबा के आंखों का चश्मा लेकर आया था। किसी ने सोचा की मां के आंचल में सोना है। पर बूढ़ी आंखों ने जब बेटे की अर्थी देखी तो बूढ़े माता पिता का दर्द उनकी आंखों से निकला और होंठों में ही दब गया।
फिर थोड़ी देर में कैमरा पहुंचा। रिपोर्टिंग शुरू हुई
सियासत गर्म हुई
और फिर से आकर खड़ा हुआ अजीब वही संयोग
पूछ पड़ा हर ज़हीनदार
कहां से आते हैं ये लोग???

अभिषेक तिवाड़ी
वरिष्ठ पत्रकार,रंगकर्मी एवं लेखक




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