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भुवनेश व्यास (अधिमान्य स्वतंत्र पत्रकार)
महात्मा गांधी आज भारत सहित कई अन्य देशों में परिचय के मोहताज नहीं है। उन्हें सादगीपूर्ण जीवन जीने, दरिद्रनारायण के लिए सोचने व कार्य करने वाले और गोरों के साम्राज्य के बीच रंगभेद का तीव्र विरोध करने वाले नेता के तौर पर जाना जाता है तो भारत में कांग्रेस के लिए तो पूजनीय मनीषी है इसके बावजूद उनके अपने ही देश भारत में आज भी करोड़ो लोगों की आलोचना के केंद्र बिंदू भी बने हुए है। आज उन कारणों को जानना भी नई पीढ़ी के लिए जरूरी है।
मैं जब प्राथमिक शिक्षा का छात्र था तब एक गांधीदूत परीक्षा आयोजित की जाती थी जिसमें मैने भी भाग लिया और गांधी जीवन दर्शन की करीब 180 पृष्ठों की किताब पढ़कर परीक्षा दी और जिले में दूसरा स्थान प्राप्त किया। शुरूआत में ही यह उल्लेख इसलिए किया क्योंकि 180 पृष्ठों की उस किताब में महात्मा गांधी का एक पक्ष दिखाया गया था। धीरे धीरे ज्यादा समझदार होते गये तो महात्मा गांधी के सम्पूर्ण जीवन का ज्ञान हुआ तो आज उल्लेख करना आवश्यक हो गया है। विषय है महात्मा गांधी महान होने के बाद भी करोड़ों देशवासियों की आलोचना के पात्र क्यों बने हुए है। गुलामी के काल के दस्तावेजों को पढ़ें तो देखेंगे कि अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई महात्मा गांधी के अफ्रीका से लौटने तक देश के तत्कालीन भगवा ध्वज के नीचे लड़ी जो रही थी जिसमें देश में रह रहा मुस्लिम समाज शामिल नहीं था तब कोई गर्म दल या नर्म दल खेमा भी नहीं था लेकिन महात्मा गांधी जिन्हें भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी के बाद इस देश में सबसे बड़ा अहिंसावादी माना जाता है ने यहां पहले से मौजूद विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू को साथ लेकर रक्त आंदोलन से हटकर अंग्रेजों से आज़ादी के लिए राजनीतिक तरीके से लड़ने के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित कांग्रेस को अपनाया और चोरा चोरी कांड के बाद क्रान्तिकारियों को दो भागों में बांट दिया। एक गर्म दल जिसका नेतृत्व सुभाष बोस जैसे नेता कर रहे थे तो महात्मा गांधी व नेहरू के नेतृत्व वाले गुट को नर्म दल के रूप में जाना गया। बोस का कहना था कि अहिंसात्मक तरीके से आजादी नहीं मिलेगी। जबकि गांधी नेहरू की जोड़ी ने बोस और उनके गुट को नकारना शुरू कर दिया। यहीं से महात्मा गांधी आलोचना का निशाना बनने लग गये और इस आलोचना को तब और बल मिला जब उन्होंने होम रूल लीग की स्थापना के लिए अंग्रेजों के सामने प्रस्ताव किया जिसे अंग्रेजों ने स्वीकार कर लिया और मार्च 1931 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी ने तब के वायसराय इरविन से लिखित समझौता किया तो बोस जैसे क्रान्तिकारियों की भृकुटी तन गई कि हम घुटने टेककर नहीं बल्कि अंग्रेजों से लड़कर पूर्ण स्वराज लेंगे।
अब आपको बताए कि इरविन समझौता क्या था ? इरविन समझौता ठीक उसी तरह था जैसा मुगल राज में होता था कि जिस राजा ने घुटने टेक दिये उसे राजा बने रहने दिया गया और वे मुगलों के आदेशों की पालना करते रहे थे। वैसा ही इस समझौते में भी था जिसके चार मुख्य बिंदू थे। एक यह कि आप ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार नहीं करोगे, दूसरा यह कि अंग्रेजों ने बड़े लोगों की जो सम्पत्ति जप्त कर ली उसे मुक्त करना, तीसरा राजनीतिक बंदियों को रिहा करना और चौथा महत्वपूर्ण कि आंदोलन में हिंसा करने वाले क्रान्तिकारियों को बंदी बनाये रखना। चौथे बिंदू का जबर्दस्त विरोध हुआ वहीं प्रथम बिंदू कि ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार नहीं करना जिस पर सवाल खड़े हुए कि फिर विदेशी सामानों की होली जलाने का क्या मतलब रहा ? कांग्रेस ने इस समझौते को अपनाया और एक तरह से कांग्रेस से जुड़े क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने राजनीतिक बंदी माना और इस समझौते को नकारने वाले गर्म दल के सभी क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने बागी मानकर जेल में डाल दिया जिनकी कोई सुनवाई नहीं। बोस जैसे क्रान्तिकारियों ने तब कहा कि बापू ने जो समझौता किया उससे भगतसिंह, चंद्रखेखर आजाद, लाला लाजपतराय, तिलक, बिस्मिल की आत्मा को चोट पहुंची और हम मरते दम तक इसे स्वीकार नहीं करेंगे। इसी समझौते का नतीजा था कि महात्मा गांधी और नेहरू ने कांग्रेस के अधिकांश सदस्यों के मना करने के बावजूद दोनों विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया।
इरविन समझौते के अलावा भी महात्मा गांधी ने अपनी आलोचनाओं की परवाह किये बिना मुस्लिमों को साथ लिया जिन्होंने मुस्लिम लीग नेता जिन्ना और शौकत भाईयों के नेतृत्व में एक समय अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने से इंकार कर दिया था। और 1919 में जब तुर्की में अंग्रेजों ने कत्ले आम किया तो यहां लखनउ में तुर्की खलीफा के समर्थन में खिलाफत आंदोलन किया और महात्मा गांधी उसमें शरीक हुए तो हिंदू महासभा से जुड़े क्रान्तिकारियों ने जबर्दस्त विरोध किया। बाद में इन्हीं जिन्ना व शौकत बंधुओं के दबाव में देश का विभाजन हुआ जिसके लिए उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे सहित तमाम हिंदू महासभा पदाधिकारियों ने कहा कि बापू हमें बंटी हुई आजादी नहीं चाहिए इसके विरूद्ध आप अनशन करें लेकिन अपने अनशन से अंग्रेजों को हिला देने वाले महात्मा गांधी ने मौन व्रत धारण कर लिया लेकिन पाकिस्तान को 55 करोड़ देने के लिए सरदार पटेल के मना करने पर अनशन शुरू कर दिया और आखिर पाकिस्तान को भीख देनी ही पड़ी। इन्हीं पैसों से विभाजन के दंगे हुए जिसमें नोवाखली और कालाहांडी में हिंदुओं का कत्ले आम हुआ लेकिन महात्मा गांधी ने हिंदु परिवारों के पास जाने की बजाय मुस्लिम परिवारों का दौरा कर बहुसंख्यक समुदाय को अपनी आलोचना का ऐसा अवसर दिया कि आज भी इरविन समझौता कर अंग्रेजों के सामने झुकने से लेकर तुष्टिकरण नीति के कारण ही अपनी महानता के बावजूद वे अपने ही देश में आलोचना के पात्र बने हुए है। ये सवाल आज भी है कि महात्मा गांधी जिन्हें ना विलासिता से जीना था और ना ही वे सत्ता भोगी थे तो ऐसे निर्णय जिनसे खुद ही आलोचना के केंद्र बन जाये वे उन्होंने अपने विवेक से लिये या जिन्हें सत्ता चाहिए थी उनके दबाव में लिये??