रचना / लेख - सामाजिक समरसता के भगीरथ -अलौकिक लीलावतार मावजी महाराज
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लेखक - डॉ. दीपक आचार्य

सीधा सवाल। चित्तौड़गढ़। की प्रस्तुति

सामाजिक समरसता के भगीरथ -अलौकिक लीलावतार मावजी महाराज

भारतीय संस्कृति में धर्म साधना का जो रूप दिखाई देता हैं वह मज़हब या रेलिज़न का पर्याय मात्र न होकर एक विराट जीवन दृष्टि का परिचायक है। वह कोई उपासना पद्धति विशेष नहीं है बल्कि समष्टि हित की दिशा में वैयक्तिकता के तिरोभाव की एक करुणामूलक परिणति है।

यही कारण है कि भारतीय धर्म साधना में ऐसे संतों या भक्तों की अटूट परंपरा मिलती है, जिन्होंने अदृश्य निराकार-निरामय ब्रह्म का साक्षात्कार उसके अंशी रूप समाज को दीन-हीन, कातर-दुःखी एवं उपेक्षित जनों में किया और अपनी समस्त श्रद्धा सेवा उन्हें ही समर्पित की।

वागड़ की पुण्य धरा पर भी ऐसे ही एक कर्मयोगी तपस्वी संत का अवतरण हुआ, जिन्हें मावजी महाराज के नाम से भगवान के अंशावतार के रूप में आज भी लाखों भक्त अनन्य श्रद्धा भाव से पूजते हैं।

लाखों भक्तों की आस्था के केन्द्र

उत्तर भारत की संत परंपरा में सामाजिक दृष्टि से जितना महत्व कबीर का है, राजस्थान के दक्षिणाँचल में उतनी ही सघन आस्था अलौकिक दिव्य शक्तियों से युक्त संत मावजी महाराज के प्रति है।

मावजी महाराज के उपदेश और बोध वाक्यों के साथ ही उनकी भविष्यवाणियाँ इस अंचल में वैदिक ऋचाओं से कम महत्व नहीं रखतीं। यही कारण है कि आज भी कई-कई लाख भक्तों की परंपरा अक्षुण्ण बनी हुई है।

उनकी समाज सुधार क्रान्ति का ही परिणाम है कि शिक्षा और सुविधाओं के अभाव में उपेक्षित जीवन जी रहे आदिवासी और पिछड़े समाज में भी एक स्वस्थ परंपरा एवं आत्मविश्वास का संबल दिखाई देता है। मावजी महाराज के प्राकट्य के बारे में लोकवाणियों में स्पष्ट कहा गया है -

 दशमें नारायण नूँ निकलंकी नाम, खेतर साबलापुरी पाटन ग्राम

उत्तम न्यात माता केशर नाम, पिता दालम ऋषि निकलंकी ना तात्

संवत सत्रह सौ ने चौरासी ना साल, माघ रे महीनो ने उजवारी पाख

तेथ एकादशी हरि ने वार सोमवार, शुक्र लग्न में अमरत जोग

मकर लग्न नो मल्यो संजोग, सहजे गुरु हरि ने सतिया सूर

काया कल्प हरि ने मुखडे़ तम्बोल, हनुमंत भाव प्रगट्यो निज धाम

त्यारे धरयो रे धणिए दशमो अवतार.....

अर्थात माता केशर माँ औेर पिता औदीच्य ब्राह्मण दालम ऋषि के घर मावजी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1771 माघ शुक्ल पंचमी, बुधवार को हुआ। बारह वर्ष की कठोर तपस्या सुनैया पर्वत पर पूरी करने के बाद अलौकिक लीलावतार एवं योगीवर्य के रूप में उनका प्राकट्य विक्रम संवत 1784 में माघ शुक्ल एकादशी, सोमवार को हुआ।

धर्म संस्थापनार्थ हुआ अवतरण

मावजी का प्राकट्य ऐसे समय हुआ जब यह समूचा वनाँचल अभावों, समस्याओं बहुविध पीड़ाओं/संत्रासों, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, अथाह गरीबी और सामाजिक विषमताओं से जकड़ा था। बुराइयों ने समाज को जकड़ रखा था और धर्म भावना का ह्रास होने लगा। परतंत्रता की बेडियों में जकड़े लोग बेहद त्रस्त थे और पाखण्डी लोगों का चहुँ ओर वर्चस्व होने लगा था।

ऐसी कठिन परिस्थितियों में ‘‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम..‘‘ की शाश्वत परंपरा का निर्वाह करने भगवान के अंशावतार के रूप में संत मावजी ने अवतार लिया और देश के अत्यन्त पिछड़े कहे जाने वाले इस जनजाति अंचल को अपना कर्मक्षेत्र बनाते हुए लोक जागरण के मंत्र फूँके।

मानव प्रेम को बताया सर्वोपरि

बीहड़ वनों भरे इस पर्वतीय अंचल में गाँव-गाँव घूमकर मावजी ने धर्म की अलख जगाई और लोगों में घर कर गई निराशा की भावना को दूर कर आत्मविश्वास का संचार किया। माव परम्परा के जानकारों के अनुसार जातिगत भेदभावों, संकीर्णताओं और परस्पर झगडे़-फसादों में घिरी वागड़ की जनता को सौहार्द, प्रेम और समन्वय का संदेश देने के लिए मावजी महाराज ने चार विवाह किये। इनमें विधवा विवाह भी शामिल है। बड़ी औदीच्य कुल की डूँगरपुर जिलान्तर्गत गामड़ा बामनिया की वखत माँ से उन्हें एक पुत्र हुआ, उदियानंद नामक यह पुत्र बाद में मावजी की गादी पर बैठा। बाँसवाड़ा जिले के कूँपडा गाँव की छोटी औदीच्य कुल की रूपा बाई से उनकी तीन संतानें देवानंद, कमलानंद तथा एक पुत्री कमला कुँवर हुई पर दैव योग से इन तीनों का अल्पायु में ही निधन हो गया। मावजी ने इनमें से दो स्वप्न विवाह किये। सागवाड़ा की गुजराती पाटीदार कुल की मनु विधवा से उन्होंने विवाह किया तथा इससे नित्यानंद का जन्म हुआ। धार की राजकुमारी से भी उन्होंने स्वप्न विवाह किया। धार की राजकुमारी साहू से रात में स्वप्न में मावजी ने विवाह रचाया। जब सवेरे राजकुमारी उठी तो उन्हें अपनी साड़ी के पल्ले में मावजी का संदेश लिखा मिला-

‘‘बेणेश्वर को बेणको सोम मही को घाट

आदूदरो आद को, त्यां जो जो म्हारी वाट‘‘

इस घटना के बाद धार के राजा ने पता लगवाया तथा राजकुमारी सहित बेणेश्वर जाकर संत मावजी के दर्शन किये।

अधूरी रास लीला को दी पूर्णता

मावजी महाराज ने बेणेश्वर टापू पर सामाजिक समरसता की गंगा बहाते हुये विभिन्न जातियों, वर्णों आदि से ऊपर उठकर हजारों गोपिकाओं के साथ रासलीला रचायी, जो कि श्रीकृष्ण युग में अधूरी रह गई थी।

नारी जाति के प्रति सम्मान मावजी परंपरा का प्रमुख अंग है। मावजी के पुत्र उदियानंद की पत्नी जनकुँवरी भी बेणेश्वर धाम एवं साबला हरि मन्दिर की तृतीय पीठाधीश्वर रहीं और वे भी अलौकिक चमत्कारों युक्त थीं। एक बार अंग्रेज अफसरों एवं तत्कालीन राजाओं को चमत्कार दिखाने के उद्देश्य से जब वे मावजी की परम्परागत गादी पर बैठीं तो उनका शरीर पुरुष वेश में बदल गया। इन अफसरों और तत्कालीन राजाओं ने जनकुंवरी को अनेक दिव्य रूपों में देखा तथा आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके। इन तमाम नारी देवियों के श्रीविग्रहों की राधा-कृष्ण मन्दिर में पूजा की जाती रही है।

दिव्य जीवन का संदेश दिया

मावजी ने अपना पूरा समय अछूतोद्धार को समर्पित किया और निम्न कही जाने वाली जातियों को धर्माधिकार देते हुये दीक्षित कर सामाजिक समरसता, स्वाभिमान और समानता का मंत्र गुंजाया। संत मावजी ने श्रीकृष्ण और मानव प्रेम की धाराएँ-उप धाराएँ बहायी वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों एवं व्यसनों को दूर कर पवित्रता युक्त आदर्श एवं दिव्य जीवन जीने का संदेश भी दिया।

आज भी हिलोरें ले रही है माव भक्ति

आज भी कई लाख अनुयायी मावजी के उपदेशों पर चलकर आदर्श जीवन जी रहे हैं। हर साल माघ पूर्णिमा को बेणेश्वर में लगने वाले विराट मेले में मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात सहित देश के विभिन्न हिस्सों से उनके लाखों भक्त भाग लेते हैं और अपार श्रद्धा व्यक्त करते हैं।


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