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सीधा सवाल। निम्बाहेड़ा।
"चाँद की शोभा चाँदनी से, आकाश की शोभा तारों से और गमले की शोभा फूलों से होती है। उसी प्रकार मानव जीवन की शोभा उसके गुणों से होती है। जब तक मानव जीवन सद्गुणों से संपन्न नहीं बनता, तब तक आत्मा का सच्चा विकास संभव नहीं है।"
उक्त उदगार सोमवार को स्थानीय शांति नगर स्थित नवकार भवन में आयोजित धर्मसभा में वर्षावास के लिए विराजित जैन संत मुनि श्री युगप्रभ जी म.सा. ने उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
मुनि श्री ने कहा कि आज के युग में आकृति से मानव तो करोड़ों में मिल सकते हैं, परंतु प्रकृति से मानव बन पाना अत्यंत दुर्लभ है। जो व्यक्ति अपने जीवन में मानवता के गुणों को अपनाता है, वही वास्तव में "प्रकृति से मानव" कहलाने योग्य होता है।
धार्मिक प्रवचनों की कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मुनिश्री ने श्रावकों के कर्तव्यों और गुणों की ओर प्रकाश डालते हुए कहा कि "जब तक श्रावक के जीवन में 'यातना' का भाव नहीं आता, तब तक वह वास्तविक यातना से नहीं बच सकता। यातनावान श्रावक वही होता है जिसके प्रत्येक कार्य पर धर्म की छाप होती है।"
उन्होंने यह भी कहा कि धर्म को छोड़कर जो भी कार्य किए जाते हैं, वे आत्मा के कल्याण की दिशा में सहायक नहीं होते। उन्होंने दो अत्यंत कठिन कार्यों की चर्चा करते हुए कहा कि "आज के समय में दो कार्य सबसे कठिन हैं एक, स्वयं मानव बनना और दूसरा, किसी को सच्चा मानव बनाना।" इसके लिए उन्होंने मानवता रूपी गुण को जीवन में आत्मसात करने की आवश्यकता बताई।
प्रवचन की शुरुआत श्री अभिनव मुनि जी म.सा. ने की। उन्होंने कहा कि "केवल संवेग (धार्मिक उत्साह और आत्मिक जागरूकता) भाव से ही आत्मा का कल्याण संभव है। आज का मानव संवेग को छोड़कर उद्वेग (अविवेकपूर्ण आवेग) की ओर अग्रसर हो रहा है, जो अशांति का कारण बन रहा है।"
सभा में नगर के अनेक श्रावक, श्राविकाओं सहित धर्मप्रेमियों ने उपस्थित रहकर मुनिश्री के उद्बोधनों को ध्यानपूर्वक आत्मसात किया।
