सौंदर्य की विविधता - डॉ ऋतु टांक
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कुरूपता के सकारात्मक पक्ष को अनुभव करने पर रस रूपी सौंदर्य का भाव उत्पन्न हो जाता है

सौंदर्य पाश्चात्य संस्कृति में स्थूल रहा ,परंतु पूर्वी संस्कृति में सूक्ष्म रहा है। भिन्न-भिन्न संस्कृति के अनुसार सौंदर्य की आत्मा भी भिन्न-भिन्न रही है।

सौंदर्य के विचार क्रम को हमेशा समझने के लिए शब्दों का प्रयोग किया गया। कभी सौंदर्य को अनुभव करने हेतु रस को माध्यम बनाया गया। रस तथा सौंदर्य विरोधी तत्व नहीं है। सौंदर्य के सौंदर्यता रस को अनुभव करने के लिए विविध स्वरूप रहे हैं । भारतीय दार्शनिकों ने धार्मिक विद्वानों ने सौंदर्यात्मक को एक अनुभूति माना है, इनमें से भी एक विविध माध्यम कुरूपता है। 

सौंदर्य के रस को आनंद के रूप में अनुभव करने वाले दार्शनिकों ने सामाजिक सर्वोदय में सत्यम शिवम सुंदरम को आनंददाई माना है । इन सब नैतिक मूल्य रूपी सौंदर्य में कुरूपता भी रस के मार्मिक भाव को स्पष्ट करता है। कुरूपता के सकारात्मक पक्ष को अनुभव करने पर रस रूपी सौंदर्य का भाव उत्पन्न हो जाता है । यदि इस कुरूपता में सकारात्मक पक्ष के सौंदर्य को इस उदाहरण द्वारा समझे तो सामाजिक सहृदय को इस नकारात्मकता में सकारात्मकता दृष्टिगत होती है।

     एक व्यक्ति जब किसी मेले कुचले दरिद्र भिखारी को देखता है तो उसमें जुगुप्सा स्थाई भाव के विभत्स रस की उत्पत्ति होती है और वह कुरूपता को अनुभव करता है। इस मेले कुचले दरिद्र भिखारी को सहृदय रूपी कलाकार देखता है और उसे रंगमंच पर मंचित करता है या कैनवास पर चित्रित करता है तो परिणाम स्वरूप सर्वश्रेष्ठ कलाकार के रूप में पुरस्कृत हो जाता है। इस प्रकार कुरूपता में सौंदर्य का भाव उत्पन्न हो जाता है । 

दर्शक , सहृदय या सामाजिक चेतना में कृति या रंगमंच पर भिखारी भी सभी को सुंदर व आनंददायी महसूस करवाता है। यह आनंददाई स्वरूप आत्मा को कुरूपता में सौंदर्यता का अनुभव करवाता है। ब्रह्मांड के निर्माता ईश्वर जो वास्तविक कलाकार है उसकी रचना में सौंदर्यता का भाव चिरकाल से व्याप्त है, परंतु मानव के हृदय में शिव रूपी नैतिक मूल्यों के ह्रास से सृष्टि कर्ता के कृति में कुरूपता को देखना प्रारंभ कर दिया, बल्कि कुरूपता के रूप में ही विद्यमान सौंदर्य भी है ।

कलाकार पहले दार्शनिक है तब कलाकार सौंदर्य दृष्टा बनता है । कला व सौंदर्य गुढत्तम रहस्यों के मर्म को पहचानने तथा परिभाषित करने का प्रयास तो किया गया परंतु उसे महसूस नहीं करवाया गया क्योंकि सामाजिक या सहृदय में शिवत्व रूपी नैतिक मूल्यों का ह्रास पाश्चात्य संस्कृति ने कर दिया ,जिससे आत्मा स्थूल हो गई और सुक्ष्म सौंदर्य का ह्रास होता चला गया । विभत्स रस रूपी कुरूपता ने सकारात्मकता के स्थान पर नकारात्मकता का स्थान ले लिया, इसलिए सहृदय ने कुरूपता को कुरूपता के रूप में ही देखा ।


अभिव्यक्त सौंदर्य का रसास्वादन तभी संभव होगा जब प्रेक्षक या सामाजिक या दर्शन अपनी दृष्टि को भी पारंपरिक परिवेश ,भारतीय संस्कृति के अनुसार नैतिक मूल्य से परिपूर्ण कर समसामयिकी परिस्थितियों से तादात्म्य स्थापित कर कला का अवलोकन करेगा। इस सकारात्मक में नकारात्मकता का भाव उत्पन्न नहीं होगा और कुरूपता में भी सौंदर्यता का भाव उत्पन्न हो जाएगा।


डॉ ऋतु टांक, उदयपुर

कला समीक्षक


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